इतने भोले भी नहीं हैं जसवंत सिंह
वीरेन्द्र जैन
कूटनीति ऐसी दो सिरे वाली तलवार होती है जो यदि सामने वाले के लिए घातक नहीं हो पाती तो खुद को ही नुकसान पहुँचाती है। जो राजनीतिक संगठन लोकतांत्रिक राजनीति में पारदर्शिता की जगह कूटिनीतिक तरीकीबें करते हैं उनके साथ ऐसा खतरा हमेशा ही बना रहता है।
भाजपा में जसवंत सिंह का जिन्ना प्रसंग ऐसा ही है। सामंत परिवार में जन्मे, पूर्व सेना अधिकारी रहे, व देश में प्रधानमंत्री के बाद सबसे महत्वपूर्ण मंत्रालय वित्त, विदेश, व रक्षा को सम्हालते रहने वाले जसवंत सिंह संघ की भाजपा में रहते हुये व आडवाणी का हश्र देखने के बाद जिन्ना की प्रशांसा में पुस्तक लिखने का परिणाम न जानते हों ऐसा नहीं माना जा सकता। एक तो वे ठीक तरह से जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं दूसरे उनका निशाना नेहरू और पटेल नहीं आडवाणी हैं व उन्होंने किताब के बहाने एकलव्य की तरह ऐसे तीर छोड़े हैं जिससे भाजपा के वाचालतम प्रवक्ताओं तक की बोलती बन्द हो गयी है।
जनसंघ की दूसरी अवतार भाजपा का इतिहास प्रारंभ से ही जोड़ तोड़ व दुरभिसंधियों से भरा हुआ है। अपने साम्राज्य के हित में देश में अंग्रेजों द्वारा पनपाये गये साम्प्रदायिकता के बीजों से जीवन पाकर जो हिन्दू पक्ष विकसित हुआ था वह आरएसएस था तथा जो मुस्लिम पक्ष विकसित हुआ था वह मुस्लिम लीग के नाम से जाना गया। दोनों ने ही आजादी की लड़ाई में कोई सहयोग तो नहीं दिया किंतु साम्प्रदायिक दंगों के द्वारा समाज को बांटने के प्रयासों में अंग्रेजों की हैसियत को ही मजबूत करते रहे। आजादी के समय हुये साम्प्रदायिक दंगों और देश के बंटवारे से शेष बचे देश के हिन्दुओं के एक हिस्से और पाकिस्तान में अपना वतन छोड़ कर आये हिन्दू शरणार्थियों में एक पराजय का भाव पैदा हुआ जो उन्हें साम्प्रदायिक बना गया व भारत में रह गये मुसलमानों में एक ऐसा अपराधभाव पैदा हुआ कि उनमें से एक वर्ग रक्षात्मक रूप से साम्प्रदायिक हो गया। उनके बीच की यह दूरी नयी लोकतांत्रिक व्यवस्था, जो अपनी बाल्यावस्था में थी, में जन्मे राजनीतिक दलों को बहका गयी। संघ ने जनसंघ बना कर हिन्दुओं के बीच अपनी चुनावी राजनीति की शाखा डाल ली तो मुसलमानों के वोट हस्तगत करने के लिए काँग्रेस ने स्वयं को अपने अनेक सदस्यों के चरित्र व व्यवहार से अलग धर्मनिरपेक्ष घोषित और प्रचारित करने में लाभ देखा। जहाँ हिन्दुओं में साम्प्रदायिकता से प्रभावित वोट जनसंघ को मिले वहीं मुस्लिम साम्प्रदायिक वोटरों ने रणनीतिक दृष्टि से काँग्रेस की सरकार बनाने में अपनी अधिक सुरक्षा देखी। परिणाम यह हुआ कि बिना काम के थोकबंद वोट मिलते रहने से इस ध्रुवीकरण ने इन राजनैतिक दलों में राजनीतिक कार्यक्रमों को पीछे कर दिया। इससे जनता के बीच सीधे जाने की जरूरतें कम होने लगीं। काँग्रेस के पास स्वतंत्रता संग्राम की विरासत के साथ साथ दलित वोट भी थे इसलिए प्रारंभ में सत्ता उसके ही पास रही।
हमारे देश के लोग स्वभाव से साम्प्रदायिक नहीं हैं इसलिए जनसंघ व मुस्लिम लीग के वोट हमेशा ही कम रहे। जनसंघ को दूसरे हथकण्डे अपनाने पर ही सत्ता का स्वाद चखने के अवसर मिल सके। सत्ता पर अधिकार जमाने की वासना से भरा जनसंघ वह दल रहा जो आजादी के बाद बनने वाली प्रत्येक संविद सरकार में सम्मिलित होने के लिए उतावला रहा। संविद सरकारों का गठन मुख्य रूप से काँग्रेस छोड़ कर आये लोगों, विभिन्न तरह के समाजवादियों ही नहीं अपितु भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी आदि के साथ हुआ किंतु अपने आप को सैद्धांतिक कहने वाली पार्टी के लिए सत्ता के वास्ते कोई अछूत नहीं रहा। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर तो उसने अपनी जनसंघ पार्टी का विलय करना भी मंजूर कर लिया। पर अन्दर अन्दर वे संघ के आज्ञाकारी बने रहे जिसकी पहचान होने पर ही जनता पार्टी का विभाजन हुआ और केन्द्र में पहली गैर कांग्रेस सरकार का पतन हुआ। वे जैसे जनता पार्टी में उतरे थे लगभग वैसे ही समूचे वापिस आ गये। वैसे भी उन्होंने जनसंघ के संसाधनों का विलय नहीं किया था इसलिए वे फिर से अपने नये नाम भारतीय जनता पार्टी के रूप में प्रकट हो गये। यह नाम उनको इसलिए भी पसंद आया था ताकि वे जनता पार्टी की लोकप्रियता का लाभ ले सकें। बाद में इस पार्टी ने सत्ता पाने के लिए हर तरह के हथकण्डों को अपनाने में गुरेज नहीं किया। दूसरी पार्टियों में स्वार्थ पूरा न हो पाने पर निकाले गये प्रभावशील नेताओं, प्रिवीपर्स व विशोषाधिकार बन्द पूर्व राजे महाराजों का इन्होंने आगे बढ कर स्वागत किया, प्रत्येक लोकप्रिय व्यक्तित्व के साथ सौदा करके अपने साथ जोड़ने में कोई देर नहीं की व राजनीतिक महात्वाकांक्षा रखने वाले सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारियों, सेना अधिकारियों से अपने दल को सुसज्जित किया। प्रत्येक भावनात्मक घटना का राजनीतिक लाभ उठाने में उन्होंने देर नहीं की भले ही वैसा करना देश और जनता के खिलाफ जाता हो।
पर जो विचार सिद्धांत व कार्यक्रम से बंधा नहीं होता है या उसे लगता है कि संगठन में वैसा काम तो नहीं हो रहा जैसा कि दावा किया जाता है, या जिससे आकर्षित होकर वह आया था तो वह अपनी सेवा की कीमत चाहने लगता है। वे उमाभारती हों, वसुंधरा राजे हों, कल्याण सिंह हों, भुवनचन्द्र खण्डूरी हों, बाबूलाल मराण्डी हों, यशवंतसिन्हा हों, सिद्धू होंं, धर्मेंद्र हों या जसवंत सिंह हों। अपने लाभ के लिए किसी के स्तेमाल की कोई सीमा होती है और जब साफ दिखायी दे रहा हो कि हम ना तो राष्ट्र के लिए बलिदान दे रहे हैं और ना ही सिद्धांतों के लिए तब कोई प्रमोद महाजनों अरूण जेटलियों, और आडवाणियों को कब तक ढोयेगा!
सन 2001 में श्रेष्ठ सांसद के रूप में सम्मानित जसवंत सिंह ने केन्द्र सरकार के सभी प्रमुख मंत्रालयों का संचालन अपनी पूरी योग्यता व क्षमता से किया था। भाजपा के विरोधी दलों में भी यदि किसी भाजपा नेता का सर्वाधिक सम्मान था तो वह जसवंत सिंह का ही था व सबसे कम आलोचना उन्हीं की थी। जब भाजपा लोकसभा में कुल दो सदस्यों तक ही सिमिट कर रह गयी थी तब उसके उन दो सदस्यों में से एक जसवंत सिंह थे जिन्होंने भाजपा संसदीय दल के नेता के रूप में उसके पक्ष को लगातार संसद में रखा था। भाजपा के 'घोषित सिद्धांतों' के हिसाब से वे आडवाणी के उत्तराधिकारी के रूप में सबसे आगे थे किंतु आरएसएस की पृष्ठभूमि न होने के कारण संघ के नेता उन्हें इतना आगे नहीं जाने देना चाहते थे। जब ऐसा लगने लगा कि आडवाणी के बाद सबसे आगे जसवंत सिंह होंगे तब उनके पर कतरने की तैयारियां प्रारंभ हो गयी थीं। राजस्थान में वसुंधरा राजे ने उन जैसे कद के नेता की उपेक्षा करना व उन्हें अपमानित करना प्रारंभ कर दिया था जो बिना संघ और आडवाणी की मर्जी के संभव नहीं था। इसी द्वंद में उन्होंने अटल बिहारी बाजपेयी के कार्यकाल के दौरान उनके कार्यालय में एक अमरीकी एजेन्ट होने की बात को उजागर कर दिया था जिससे पूरी भाजपा भीतर से हिल गयी थी। उस बात को बाद में दबा दिया गया था किंतु यह भी सच है कि अमरीका के साथ परमाणु करार के मामले पर आये अविश्वास प्रस्ताव पर दल बदल करने वाले इसी राष्ट्रभक्ति का ढिंढोरा पीटने वाली पार्टी के सांसद सर्वाधिक थे। बाद में जसवंत सिंह को अपना चुनाव क्षेत्र छोड़ कर बंगाल में उस जगह चुनाव लड़ने भेज दिया जहाँ से भाजपा की जीत की संभावनाएं न्यूनतम थीं। किंतु संयोगवश गोरखा नैशनल फ्रन्ट वालों से समझौता हो जाने के कारण वे वहाँ से भी जीत गये। जब लोकसभा में आडवाणीजी ने विपक्ष का नेता पद स्वीकार करने में ना नुकर की तब उन्हें जसवंत सिंह के नेता बन जाने की संभावना का डर दिखा कर ही दुबारा से नेता बना दिया गया व उपनेता की जिम्मेवारी भी उन्हें न देकर सुषमा स्वराज को दी गयी। यही वह समय था जब उन्होंने हार की जिम्मेवारी तय करने का मसला उछाला जिससे हड़बोंग मच गया।
दर असल जसवंत सिंह समझ चुके थे कि अब उन्हें किसी न किसी बहाने से दिन प्रति दिन गिराया जायेगा और भाजपा की संस्कृति व उसके इतिहास के अनुसार किसी भी तरह के नैतिक अनैतिक हमले किये जायेंगे। इस पूर्व सैन्य अधिकारी ने पूरी सोच समझ के साथ दुश्मन के हमले से पहले हमला कर देना ठीक समझा। उन्होंने भाजपा की बहुत ही कमजोर नस पर हाथ रख दिया। अपने साम्प्रदायिकता से प्रभावित समर्थन को बनाये रखने के लिए ही आडवाणीी के जिन्ना सम्बंधी बयान पर संघ और विश्व हिंदू परिषद आदि ने कड़ी प्रतिक्रिया दी थी और आडवाणी को "बिहार चुनाव के बाद" अध्यक्ष पद छोड़ने को विवश कर दिया था किंतु अडवाणी के विकल्प पर कोई खतरा न लेने के वास्ते उन्हें विपक्ष का नेता बना रहने दिया था। वहीं लोगों की स्मृति लोप होने के बाद उन्हें प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी चुनवा दिया गया जबकि अडवाणी ने ना तो कभी सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया कि जिन्ना के बारे में दिये अपने बयान के मामले में वे गलत थे और ना ही कोई क्षमा याचना ही की। जसवंतसिंह, जो समझ चुके थे कि भाजपा में अब उनके दिन लद गये हैं, ने इसी विसंगति का लाभ लेने में भलाई समझी ताकि वे उन्हें आइना दिखा सकें। भाजपा ने इससे पहले दो समझदारियां कीं, एक तो वसुंधराराजे को राजस्थान में विपक्ष के नेता पद से हटा कर वहां संतुलन बनाने का और दूसरे गोबिन्दाचार्य को बुला कर एक घन्टे तक उनसे विर्मश करके उमा भारती को मनाने का जिससे अगली 25 सितम्बर को उनकी बची खुची पार्टी के भाजपा में वापिस मिला लेने की संभावनाएं बन गयीं हैं। अब उमा भारती ने लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट पर सच्ची प्रतिक्रिया देने के प्रति अपना मुँह सिल लिया है।
किसी को पता नहीं छलनी के कितने छेदों को बन्द कर पाने में वे कब तक सफल हो सकेंगे, पर सच तो यह है कि इनके वोटरों को छोड़ कर कोई भी सीधा और सरल नहीं है।
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