Wednesday, October 10, 2012

BHOJPURI SAMRAT BHIKHARI THAKUR was an Indian author popularly known as the "Shakespeare of Bhojpuri".


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Bhikhari Thakur – भिखारी ठाकुर
Bhikhari Thakur,  was born in a barber-family on the 18th of December,1887 at Kutubpur ( Diyara) Village in Saran district.His father and mother were Dal Singar Thakur and Shivkali Devi respectively.He also had a younger brother named Bahor Thakur. 

He went to Kharagpur to earn a livelihood. Although he did earn well, he wasn't satisfied with the job. He had always been impressed by Ramleela and a trip to Jagannath Puri awakened the artist in him. Now he had been changed and converted to another person.
He established a Dance Party in his native village and began to play Ram Leela , sing songs and take interest in social-causes. He wrote plays, songs and books in Bhojpuri.The simple language of his books attracted many loyal followers , and he soon became a household name. His books were published from Varanasi , Chhapra and Howrah. 

His literary creations including plays ( Bidesiya, Beti-Bechawa,Bidhawa Bilaap etc.) and songs are praised and used to play and sing even today. Almost all the respected musicians in Bhojpuri music today regard him as a source of inspiration.

Bhikari Thakur is best known for the creation of the twentieth century theatre form Bidesia.

He started writing dramas, songs and novels etc.The language of the books was simple and attracted many. The books were published from Varanasi, Chhapra and Howrah.

Bhikhari Thakur died on the 10th of July , 1971 at the age of 84 years.

एक आम आदमी जिसने भोजपुरी को बना दिया खास…
भिखारी ठाकुरएक आम आदमी के सतह से शिखर तक की बेजोड़ मिसाल हैं भिखारी ठाकुर… बहुत कम लोग होते हैं जो जीते-जी विभूति बन जाते हैं… दरअसल, इस भिखारी ठाकुर की जीवन-यात्रा भिखारी से ठाकुर होने की यात्रा ही है…फर्क सिर्फ यह है कि लीजेंड बनने की यह यात्रा भिखारी ने किसी रुपहले पर्दे पर नहीं असल ज़िंदगी में जिया.
भोजपुरी के नाम पर सस्ता मनोरंजन परोसने की परंपरा भी उतनी ही पुरानी है, जितना भोजपुरी का इतिहास….18 दिसंबर 1887 को छपरा के कुतुबपुर दियारा गांव में एक निम्नवर्गीय नाई परिवार में जन्म लेने वाले भिखारी ठाकुर ने विमुख होती भोजपुरी संस्कृति को नया जीवन दिया…..उन्होंने भोजपुरी संस्कृति को सामीजिक सरोकारों के साथ ऐसा पिरोया कि अभिव्यक्ति की एक धारा भिखारी शैली जानी जाने लगी…आज भी सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार का सशक्त मंच बन कर जहाँ-तहाँ भिखारी ठाकुर के नाटकों की गूंज सुनाई पड़ ही जाती है….बिदेसिया, गबर-घिचोर, बेटी-बियोग भा बेटी-बेचवा सहित उनके सभी नाटकों में बदलाव को दिशा देने वाले एक सामाजिक चिंतक की व्यथा साफ दिखती है….सबसे बड़ी बात कि उनके नाटकों में पात्र कभी केंद्र में नहीं रहे, हमेशा परिवेश केंद्र में रहा….यही वजह थी कि उनके पात्रों की निजी पीड़ा सार्वभौमिक रुप अख्तियार कर लेती थी… हर नयी शुरुआत को टेढ़ी आंखों से देखने वाले भिखारी के दौर में भी थे…सामाजिक व्यवस्था के ऐसे ठेकेदारों से भिखारी अपने नाटकों के साथ लड़े…वो अक्सर नाटकों में सूत्रधार बनते और अपनी बात बड़े चुटीले अंदाज़ में कह जाते….अपनी महीन मार की मार्फत वो अंतिम समय तक सामाजिक चेतना की अलख जगाते रहे….कोई उन्हें भरतमुनि की परंपरा का पहला नाटककार मानता हैं तो कोई भोजपुरी का भारतेंदू हरिश्चंद्र…..महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने तो उन्हें “भोजपुरी का शेक्सपियर” की उपाधि दे दी…..इसके अलावा उन्हें कई और उपाधियाँ व सम्मान भी मिले….भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया….. इतना सम्मान मिलने पर भी भिखारी गर्व से फूले नहीं, उन्होंने बस अपना नाटककार ज़िंदा रखा…पूर्वांचल आज भी भिखारी से नाटकों से गुलज़ार है….ये बात अलग है कि सरकारी उपेक्षा का शिकार इनके गांव तक अब भी नाव से ही जाना पड़ता है…

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