अंतुले ने क्या गलत कहा?
मुझे नहीं पता इस ब्लॉग को पढ़ने के बाद आप मुझे एंटी नेशनल और न जाने जाने किन-किन उपाधियों से नवाजेंगे और यह भी सम्भव हो सकता है कि आपके पास पर्याप्त तर्क हों मुझे उन उपाधियों से नवाजने के लिए।
खैर, आप अपने विचार बनाने के लिए स्वतंत्र हैं और मैं भी ज्यादा परवाह नहीं करता। क्या करूं, पेशे से मजबूर हूं, सोचने के लिए मजबूर हूं और देश में भारत सरकार में केन्द्रीय मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले के बयान के बाद विपक्ष द्वारा पैदा किए गए राजनीतिक हालात पर सोचने पर मजबूर हो गया कि अंतुले साहब के श्रीमुख से आख़िर निकल क्या गया और यदि निकल भी गया तो क्या यह इतना विषादयुक्त था जितना इसे बनाया गया?
क्या यह इतना बेतुका था कि एक शख्स जिसने कभी सबसे पहले देश के सम्मान भवानी तलवार और कोहिनूर हीरे को विदेशी संग्रहालय से भारत लाने का नारा बुलंद किया था, उसे एंटी नेशनल करार दिया जाय और उसके ऊपर शक जाहिर किया जाय। भवानी तलवार के बारे में कहा जाता है माता भवानी ने स्वयं छत्रपति शिवाजी को यह तलवार भेंट दी थी मुगलों से लोहा लेने के लिए। अब मराठा हितों की झंडाबरदार पार्टी भी इस मांग को लेकर कहीं नया आंदोलन न शुरू कर दे।
इस देश में अंतुले की गाड़ी की तलाशी तो ली जा सकती है और वो भी मंत्री पद पर आसीन रहते हुए, लेकिन देश को तोड़ने पर आमादा राज ठाकरे को एक कोर्ट द्वारा बार-बार सम्मन भेजे जाने के बावजूद गिरफ्तार नहीं किया जाता है और अगर अंतुले या फिर और किसी के मुंह से कुछ निकल जाए तो उसे राष्ट्रद्रोही तक के खिताब से नवाजा जाता है। वो भी उस शख्स के बार-बार सफाई देने के बावजूद!
मुझे नहीं लगता है कि अंतुले ने कुछ ग़लत कहा। उन्होंने जो भी कहा वो सारी बातें हर एक भारतीय के मन मस्तिष्क में उस दिन से कौंध ही रही थीं कि आख़िर हमारी कौन सी गलती हमसे हेमंत करकरे, काम्टे और सालस्कर जैसे मुंबई पुलिस के तीन जांबाज़ ऑफिसर को छीन ले गई। ये सारे ऐसे ऑफिसर थे जिनसे ये इक्के-दुक्के आतंकवादी तो क्या इन आतंकियों को मुंबई हमला करवाने में लॉजिस्टिकल मदद पहुंचाने वाले और 93 मुंबई बम धमाकों के भगोड़े दाऊद इब्राहिम की भी रूह कांप जाती थी तो क्या ये तीनों भारतीय वीर महज उन दो आतंकी हमलावरों का निशाना इतनी आसानी से बन गए? नहीं यह सम्भव नहीं है। अंडरवर्ल्ड के एक से एक खूंखार आतंकियों का सफाया करने वाले इन भारतीय वीरों की ऐसी मौत कतई विश्वास करने के लायक नहीं है।
अपने इन 3 बहादुर ऑफिसर को खोकर मेरा उद्वेलित मन सिर्फ़ इतना जानना चाहता है कि आख़िर ऐसी कौन सी परिस्थिति थी जिसमें हमारे मुंबई पुलिस के तीन जांबाज़ ऑफिसर को एक साथ एक गाड़ी में एक जगह के लिए रवाना किया गया या फिर वे ख़ुद रवाना हुए। क्या देश कि सर्वश्रेष्ठ पुलिस में से एक मुंबई पुलिस को गाड़ियों की कमी हो गई थी या फिर ये तीनों आतंकियों के डर से एक साथ मुकाबला करने निकल पड़े।
क्या कोई इस बात से इनकार कर सकता है कि आख़िर ये तीनों जांबाज़ ऑफिसर एक ही जगह के लिए एक ही गाड़ी में क्यों गए वो भेजे भी गए या फिर ख़ुद वहां गए जहां कम से कम होटल ताज, होटल ओबेराय, सी एस टी स्टेशन से आतंक का तुलनात्मक रूप से कम भयावह मंज़र ही था। कोई अपने सीने पर हाथ रखकर बता दे कि ये सवाल हमारे दिमाग में था कि नहीं? क्या हमें अपने इन तीन जांबाज़ ऑफिसर को खोने के पीछे रहे कारणों का पता लगाने कि इच्छा थी कि नहीं। मुझे तो थी तो क्या मैं यह सोचना सिर्फ़ इसलिए छोड़ देता कि यह सवाल किसी और ने नहीं बल्कि उसने उठाये हैं जिसके नाम के आगे अब्दुल रहमान लगा है और शहीद होने वाला ऑफिसर भगवा आतंकवादियों कि जांच में जुटा था?
अब तो मुंबई हमले के एक महीने लगभग पूरे होनेवाले हैं तो अब हम चर्चा नही करें तो कब करें, क्या हमें पता नहीं लगाना चाहिए कि अगर ऐसी बात हो रही है तो क्यों न उसकी जांच कि जाए बजाय इसके कि राजनितिक पार्टियां एक-दूसरे के ऊपर आने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर राजनीतिक फायदा लेने कोशिश करें और हम मूकदर्शक बने रहें।
इस सारे घटनाक्रम में अगर कुछ फर्क था भी तो बस इतना था कि हम राष्ट्रहित और कुछ तथाकथित राष्ट्रवादी तत्वों द्वारा एंटी नेशनल करार दिए जाने के आरोप से बचने के लिए वो बात हम कह नहीं पाये जो अंतुले साहब कह गए। मैं यह मानता हूं कि इस मुद्दे को उठाने के लिए समय ठीक नहीं हो सकता। अब ऐसा भी नही है कि यदि अंतुले साहब यदि यह बयान नहीं देते तो पाकिस्तान राजी खुशी उन चालीसों आतंकवादियों को हमें सौंप देता वो तो होने से रहा।
आख़िर जब बात निकल ही गई है तो इसे राजनीतिक चश्मे से देखने के बजाय उन बिन्दुओं पर जांच होनी चाहिए और दूध का दूध पानी का पानी हो जाए।
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