इन गीतों में मुख्य रूप से इस महीने का वर्णन होता है। भोजपुर के चैता गायक रमेश कुमार ने बताया कि चैता 'दीपचंदी' या 'रागताल' में अक्सर गाया जाता है। हालांकि कई गायक इसे 'सितारवानी' या 'जलद त्रिताल' में भी गाते हैं। वह मानते हैं कि आधुनिक समय में यह परंपरा अब समाप्त हो रही है परंतु आज भी भोजपुर, औरंगाबाद, बक्सर, रोहतास और गया जैसे जिलों में चैता की महफिल जमती है।
वह कहते हैं कि चैता पर ढेर सारे विद्वानों ने अपने आलेख लिखे हैं जिसमें चैती गीतों को संग्रह होता है। कुमार कहते हैं कि चैता गीत को बिहार में ही कई नामों से जाना जाता है। चैता गीत को भोजपुरी में घाटो, मगही में चैतार और मैथिली में चैतावर कहा जाता है।
चैत महीने में ऋतु परिवर्तन के रूप में जाना जाता है। पतझड़ बीत चुका होता है और वृक्षों और लता में नई-नई कोपलें आ जाती हैं। एक अन्य चैता गायक प्रफुल बसंत कहते हैं कि चैत महीने में राम का जन्मोत्सव होने के कारण राम का वर्णन चैता गीतों में तो आता ही है परंतु कई गीतों में कृष्ण और राधा के विरह का भी जिक्र है। इन गीतों में शिव पार्वती के भी संवाद कर्णप्रिय लगते हैं। "शिव बाबा गइले उतरी बनिजिआ, लेइ अइले, भंगिया धतुरवा हो रामा " काफी प्रचलित चैता गीत माना जाता है।
वह कहते हैं कि राज्य में चैता गीत को लेकर गांवों में प्रतियोगिता का भी आयोजन किया जाता है जबकि दो गोला भी कई स्थानों पर आयोजित किया जाता है। प्रफुल कहते हैं कि पंडित राम प्रसाद मिश्र का चैता गीत पूर्णत: ठुमरी शैली में होता है तो श्याम नारायण सिंह के गीत अलग ठुमरी शैली में गाये जाते हैं।
वह कहते हैं कि चैता में छंद का नहीं बल्कि लय का कमाल होता है। यह पढ़ने की नहीं बल्कि सुनने की चीज है। बकौल प्रफुल, "चैता गुनगुनाये के ना, करेजा फाड़ के चीज ह।" ढोलक के ताल और झाल के झंझकार पर हंहुकार होते रहना चाहिये। वह कहते हैं कि चैता गाने और सुनने से मन और दिल के अंदर के सब घुटन दूर हो जाते हैं।
गौरतलब है कि रामनवमी के चौथे दिन यानी चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर का जन्म दिन होता है। कई चैता रचयिताओं ने अपने शब्दों में उनके जन्म को भी ढाला है। "जन्मे त्रिशाला के ललना, कुंडलपुर के भवना, हो चान सुरूजवा उतर आयो हो चैत महिनमां।"
चैत महीने में गर्मी में जीने की तैयारियां प्रारंभ हो जाती हैं तो इसी महीने में पक्षी अपने प्रजनन के लिए घोंसले का निर्माण भी करने लगती हैं। चैत मास के पहले दिन होली खेली जाती है, बसंत ऋतु अपने यौवन पर होता है इस कारण इस महीने को 'मधुमास' भी कहा जाता है।
कई चैता गायक इसे लोकगीत मानते हैं परंतु कई इसे शास्त्रीय संगीत की गरिमा भी प्रदान करने से नहीं हिचकिचाते हैं। इतने के बावजूद चैता गायक खेलावन खिलाड़ी कहते हैं कि अब पुरानी स्थिति नहीं है। वह कहते हैं कि अब युवक इस परंपरा से भाग रहे हैं।
गांवों में अब युवकों की संख्या काफी कम नजर आती है। जिस कारण चैता गाने का मजा कम होने लगा है। वह कहते हैं कि पहले राज्य के करीब सभी गांवों में एक चैता गायन मंडली हुआ करती थी परंतु अब मंडली की बात छोड़ दीजिये पूरी तरह साज भी गांवों में नहीं मिलेगा।
दैनिक भास्कर
Source: agency | Last Updated 07:39(02/04/12)
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